India Myanmar Rohingya Refugees; Muslim | Supreme Court | याचिका में दावा-रोहिंग्याओं को निर्वासित करके जबरन समुद्र में फेंका: सुप्रीम कोर्ट ने कहा- यह मनगढ़ंत कहानी, जिसने देखा, वह वापस कैसे आया

Actionpunjab
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नई दिल्ली1 घंटे पहले

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सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई, जिसमें आरोप था कि भारत सरकार ने 43 रोहिंग्या शरणार्थियों को जबरन समुद्र में फेंककर म्यांमार भेज दिया। यह भी कहा गया कि इन शरणार्थियों में महिलाएं, बच्चे, बुजुर्ग और कैंसर जैसे गंभीर रोगों से पीड़ित लोग शामिल थे।

16 मई को सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए याचिकाकर्ता को फटकार लगाई। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि यह बहुत खूबसूरती से गढ़ी गई कहानी है।

अदालत ने रोहिंग्या शरणार्थियों के निर्वासन पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। साथ ही याचिकाकर्ताओं के तत्काल सुनवाई के अनुरोध को भी खारिज कर दिया। मामले को लंबित याचिकाओं के साथ 31 जुलाई 2025 तक के लिए स्थगित कर दिया।

यूएन की रिपोर्ट पर कहा- बाहर बैठे लोग संप्रभुता को चुनौती नहीं दे सकते

सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता ने संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट का हवाला दिया। इस पर जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की बेंच ने कहा कि बाहर बैठे लोग हमारे संप्रभुता को चुनौती नहीं दे सकते।

याचिकाकर्ता के वकील कॉलिन गोंजाल्विस ने कोर्ट से कहा कि लोगों को निर्वासित कर अंडमान ले जाकर समुद्र में फेंक दिया गया। अब वे वॉर जोन में हैं।

इस दलील पर जस्टिस कांत ने कुछ सवाल पूछे कि “उन्हें देखने वाला व्यक्ति कौन है। किसने वीडियो रिकॉर्ड किया। याचिकाकर्ता ने कहा कि वह वहां था, वापस कैसे आया।

गोंजाल्विस ने कहा कि भारत में रहने वाले याचिकाकर्ताओं को फोन आए। इसपर जस्टिस कांत ने कहा, देश मुश्किल दौर से गुजर रहा है, तो आप ऐसे काल्पनिक विचार सामने ला रहे हैं।

सरकार ने रखा अपना पक्ष- हम पर अंतरराष्ट्रीय कानून लागू नहीं

भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत को बताया कि भारत रोहिंग्या शरणार्थियों को अवैध प्रवासी मानता है। इसलिए उनके निर्वासन की प्रक्रिया कानून के अनुसार की जाती है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, इसलिए उस पर अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी कानून लागू नहीं होते।

सुनवाई के दौरान हुआ चकमा लोगों की नागरिकता का जिक्र

एडवोकेट गोंजाल्विस ने एनएचआरसी और अरुणाचल प्रदेश के मामले में दिए गए फैसले का हवाला दिया। इसमें कहा गया था कि गैर-नागरिकों को भी जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। इसके बाद चकमा लोगों को गैरकानूनी तरीके से बेदखल होने से रोका गया है। हालांकि जस्टिस कांत ने बताया कि उस मामले में केंद्र सरकार ने कोर्ट को बताया था कि चकमा लोगों को भारतीय नागरिकता देने पर विचार किया जा रहा है। इसलिए कोर्ट ने इस मामले में राहत प्रदान की है।

याचिकाकर्ता का दावा- डेटा जुटाने के बहाने बुलाया, आंख पर पट्‌टी बांधकर पोर्ट ब्लेयर भेजा

जनहित याचिका दिल्ली में दो रोहिंग्या शरणार्थियों ने दायर की है। इसमें आरोप लगाया गया है कि उनके समूह के लोगों को बायोमेट्रिक डेटा एकत्र करने के बहाने दिल्ली पुलिस ने हिरासत में लिया था। फिर उन्हें वैन और बसों में ले जाया गया। 24 घंटे तक कई पुलिस थानों में हिरासत में रखा गया। इसके बाद उन्हें दिल्ली के इंद्रलोक डिटेंशन सेंटर में रखा। आखिर में पोर्ट ब्लेयर ले जाया गया, जहां उन्हें जबरन नौसेना के जहाजों पर रखा गया और उनके हाथ बांधे। आंखों पर भी पट्टी बांध दी गई।

याचिकाकर्ता का दावा है कि भले ही भारत ने 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, फिर भी गैर-वापसी के सिद्धांत (जो किसी शरणार्थी को उसके मूल देश में उसकी पहचान के कारण खतरा होने की आशंका होने पर निष्कासन पर रोक लगाता है) को न्यायिक रूप से स्वीकार किया गया है।

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