23 घंटे पहले
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कई बार ऐसा होता है कि हमारी अच्छी नीयत गलत समझी जाती है, निस्वार्थ भाव से किए गए कामों की सराहना नहीं होती, और हमारे संकट और बढ़ जाते हैं। अगर नीयत अच्छी है तो फिर हमें दुख क्यों मिलता है? श्रीमद् भगवद गीता में प्रश्न का उत्तर बताया गया है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने पर है, उसके फल पर नहीं। अच्छी नीयत से जब हम कोई काम करते हैं, लेकिन बदले में फल की अपेक्षा रखते हैं तो जब अपेक्षा पूरी नहीं होती है, तब हमें दुख होता है।
नीयत और अनासक्ति में अंतर है
अच्छी नीयत होना सराहनीय है, लेकिन उनसे जुड़ी अपेक्षाएं हैं— जैसे कि प्रशंसा, सफलता या कृतज्ञता, तो ये भी मन को मोह में उलझाने वाली बात है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म करो, लेकिन फल की चिंता मत करो।
जब हम अपने कर्मों को केवल अपने कर्तव्य समझ कर करते हैं और परिणाम ईश्वर पर छोड़ देते हैं, तभी हम सच्ची शांति अनुभव कर सकते हैं।
सही समय पर सही काम करना चाहिए
कई बार हम दया या सहानुभूति से प्रेरित होकर कोई काम करते हैं, लेकिन वह कार्य यदि धर्म के विरुद्ध है तो परिणाम सही नहीं हो सकता है। गीता में धर्म को वह नियम बताया गया है जो संतुलन बनाए रखता है। केवल भला सोचना पर्याप्त नहीं है, सही समय पर सही कर्म, धर्म के अनुरूप करना जरूरी है।
अहंकार अच्छे कर्मों में भी छुपा हो सकता है, इससे बचें
हम भले काम करते हैं, लेकिन क्या हम उससे भीतर ही भीतर गर्व महसूस करते हैं? क्या हमें उसकी सराहना की अपेक्षा होती है? यदि हां, तो ये अहंकार है, जो हमें बंधन में डाल देता है। गीता सिखाती है कि जब तक हम मैं और मेरा से प्रेरित होकर कार्य करते हैं, तब तक मुक्त नहीं हो सकते। हमें अहंकार छोड़कर ही काम करना चाहिए, तभी जीवन में शांति और सुख आ सकता है।
आत्मज्ञान से मिलती है शांति
हमारे कर्म तीन गुणों से प्रभावित होते हैं — सत्व (पवित्रता), रजस् (लालसा), और तमस् (अज्ञानता)। सत्व से प्रेरित कर्म भी यदि फल की लालसा से किया जाए तो वह भी सही नहीं है। रजस् से प्रेरित कर्म अशांति लाते हैं और तमस् से प्रेरित कार्य भ्रम और दुख का कारण बनते हैं। केवल आत्मज्ञान के माध्यम से इन गुणों से ऊपर उठकर काम किया जा सकता है। आत्मज्ञान से ही शांति मिलती है।
अपेक्षा से दुख जन्म लेता है
हम अच्छे काम करते हैं, लेकिन मन ही मन उम्मीद करते हैं कि लोग उसकी सराहना करें, हमें धन्यवाद दें। जब ये अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं, तो दुख मिलता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब तक हम किसी बदले की आशा से कर्म करते हैं, दुख से नहीं बच सकते। सुख तभी आता है जब हम निष्काम भाव से, केवल धर्म के लिए कार्य करें।
संपूर्ण समर्पण से ही शांति मिलती है
गीता का सबसे ऊंचा संदेश है- ईश्वर को समर्पित बुद्धि। जब हम अपने सभी कर्म, अच्छे या बुरे, भगवान को अर्पित कर देते हैं, तब वे हमें बांधते नहीं, बल्कि मुक्त करते हैं। ये समर्पण का भाव ही कर्म को योग बना देता है। यदि संसार हमें समझे या न समझे, हमारी आत्मा तब भी शांत रहती है। इसलिए भगवान के प्रति समर्पित रहें और अपने कर्म धर्म के मुताबिक करते रहें, तभी जीवन में शांति आएगी।