2 घंटे पहले
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हमारी दीपावली कार्तिक महीने की अमावस्या को होती है, लेकिन उसके 15 दिन बाद यानी आज कार्तिक पूर्णिमा पर देवताओं की दिवाली होती है। स्कंद पुराण के काशी खंड में लिखा है कि इस तिथि पर भगवान शिव गंगा में स्नान करने आए थे। उनके बाद सभी देवताओं ने भी स्नान किया।
एक पौराणिक कथा के मुताबिक इस दिन शिवजी ने तीन राक्षसों (त्रिपुरासुर) को मारा था। इसके बाद देवताओं ने दीप जलाकर महादेव के लिए आभार प्रकट किया। इसलिए इस दिन को देव दिवाली कहते हैं और इस दिन गंगा किनारे दीपदान करते हैं।
कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा स्नान से बढ़ता है पुण्य पुराणों में कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान करने की बात कही गई है। इस पर्व पर गंगा स्नान करने से सालभर किए गए सभी पाप खत्म होते हैं। साथ ही पूरे साल गंगा स्नान करने जितना पुण्य फल मिलता है। इस दिन सिर्फ गंगा ही नहीं बल्कि अलग-अलग जगहों पर पवित्र मानी जाने वाली और पूजी जाने वाली नदियों स्नान कर सकते हैं।
इस दिन सुबह जल्दी उठकर तीर्थ स्नान करते हैं। पंडितों का कहना है कि जो लोग तीर्थ या नदियों में नहाने नहीं जा सकते वो घर पर पानी में ही गंगाजल की कुछ बूंदे डालकर नहा सकते हैं। इस दिन किए गए स्नान और दान से मिलने वाला पुण्य कभी खत्म नहीं होता। इस दिन व्रत, पूजा-पाठ और दीपदान करने से जाने-अनजाने में हुए हर तरह के पाप खत्म हो जाते हैं। पुराणों में इस दिन को पुण्य देने वाला पर्व बताया है।
अग्नि पुराण: दीपदान से बड़ा कोई व्रत नहीं शिवजी ने भी कार्तिकेय को बताया दीपदान का महत्व
अग्निपुराण में कहा गया है कि दीपदान से बढ़कर न कोई व्रत है, न था और न होगा। विद्वानों का कहना है कि पद्मपुराण में भी भगवान शिव ने भी अपने पुत्र कार्तिकेय जी को दीपदान का माहात्म्य बताया है। पूरे कार्तिक महीने में दीपदान नहीं किया तो आखिरी दिन दीपदान जरूर करना चाहिए।
असम के ज्योतिषाचार्य डॉ. गणेश मिश्र का कहना है कि कार्तिक महीने के आखिरी दिन दीपदान करना महापुण्यदायक व मोक्षदायी होता है। कार्तिक महीने के मुख्य नियमों में सबसे प्रमुख दीपदान ही है। इस महीने में दीपदान करने से कई पर्व का फल मिलता है। दीपदान का अर्थ होता है आस्था के साथ दीपक प्रज्वलित करना।
घी या तिल के तेल का दीपक जलाकर करें दीपदान कार्तिक मास में अपने घर के आंगन में तुलसी जी के पास, अपने घर के पूजन स्थान पर, मंदिरों में या गंगा घाट पर इत्यादि जगहों पर घी का एवं तिल के तेल का दीपक जला कर दीप दान कर सकते हैं। ऐसा करने से सभी व्रत का पुण्य फल प्राप्त किया जा सकता है। व अपने पितरों को प्रसन्न कर सकते हैं।
काशी की देव दीपावली इसलिए खास है, क्योंकि पुराणों में भी इसका जिक्र है। मान्यता है कि देव दीपावली पर काशी में उत्तरवाहिनी गंगा के अर्धचंद्राकार 84 से ज्यादा घाटों पर देवता स्वर्ग से आते हैं और दीपावली मनाते हैं।
पुराणों के अनुसार, देव दीपावली की 2 कहानियां
पहली कहानी: जब शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया। उसके तीनों पुत्रों ने बदला लेने के लिए तपस्या से ब्रह्मा को प्रसन्न किया। तीनों ने अमरता का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्मा ने मना कर दिया। राक्षसों ने दूसरा वरदान मांगा कि तीन पुरियां (एक स्वर्ग, एक आकाश, एक पृथ्वी) बनाएं। जब ये तीनों एक सीध में आएं, तब एक ही बाण से तीनों नष्ट हो तभी हमारी मृत्यु हो। ब्रह्मा ने वरदान दिया तो वो त्रिपुरासुर कहलाए। वरदान के बल पर देवताओं को हराकर तीनों ने आतंक फैला दिया।
सभी देवता और ऋषि शिव की शरण में गए। शिव सृष्टि की रक्षा के लिए तैयार हुए। जैसे ही तीनों पुरियां एक सीध में आई, शिव ने एक ही बाण से तीनों को भस्म किया। इस तरह त्रिपुरासुर का अंत हुआ। तब देवताओं ने दीप जलाकर शिव का स्वागत किया। इसी कारण शिव को त्रिपुरारी कहा जाता है। मान्यता है कि ये घटना कार्तिक पूर्णिमा को हुई। इसलिए देव दिवाली मनाने की परंपरा शुरू हुई।
दूसरी कहानी: शिवजी ने काशी में किया गंगा स्नान स्कंद पुराण के काशीखंड के मुताबिक, काशी में देव दीपावली मनाने के संबंध में मान्यता है कि राजा दिवोदास ने अपने राज्य काशी में देवताओं का प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया था। कार्तिक पूर्णिमा के दिन भेष बदलकर भगवान शिव ने काशी के पंचगंगा घाट पर आकर गंगा स्नान किया। यह बात राजा दिवोदास को पता लगी तो उन्होंने देवताओं के प्रवेश का प्रतिबंध को समाप्त कर दिया था। इससे देवता खुश हुए और उन्होंने काशी में प्रवेश कर दीप जलाकर दीपावली मनाई थी।
इतिहास में देव दीपावली की कहानी काशी के पंचगंगा घाट को लेकर मान्यता है कि यहां गंगा, यमुना, सरस्वती, धूतपापा और किरणा नदियों का संगम है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन पंचगंगा घाट पर स्नान विशेष पुण्यदायी माना जाता है। काशी के ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, यहां देव दीपावली की शुरुआत भगवान शिव की कथा से जुड़ी है। मगर, घाटों पर दीप प्रज्वलित होने की कथा पंचगंगा घाट से जुड़ी है।
1785 में आदि शंकराचार्य से प्रेरणा लेकर श्री काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराने वाली महारानी अहिल्याबाई होलकर ने पंचगंगा घाट पर पत्थर से बने हजारा स्तंभ (एक हजार एक दीपों का स्तंभ) पर दीप जलाकर काशी में देव दीपावली उत्सव की शुरुआत की थी। इसे भव्य बनाने में काशी नरेश महाराज विभूति नारायण सिंह ने मदद की।