BJP Nishikant Dubey Controversy | CJI-Supreme Court | SC बोला- भाजपा सांसद की टिप्पणी गैरजिम्मेदाराना: हम फूल नहीं जो ऐसे बयानों से मुरझा जाएं; निशिकांत बोले थे- CJI-सुप्रीम कोर्ट गृहयुद्ध कराना चाहते हैं

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नई दिल्ली39 मिनट पहले

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सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा सांसद निशिकांत दुबे की टिप्पणी पर कहा कि हेट स्पीच से लोहे के हाथों से निपटेंगे। - Dainik Bhaskar

सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा सांसद निशिकांत दुबे की टिप्पणी पर कहा कि हेट स्पीच से लोहे के हाथों से निपटेंगे।

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को भाजपा सांसद निशिकांत दुबे के बयान को बेहद गैरजिम्मेदाराना बताया। साथ ही कहा कि ये बयानबाजी अपनी तरफ ध्यान खींचने के लिए की गई।

सुप्रीम कोर्ट ने सख्त लहजे में ये भी कहा,

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अदालतें फूलों की तरह इतनी नाजुक नहीं हैं कि ऐसे हास्यास्पद बयानों के सामने मुरझा जाएं। सांप्रदायिक नफरत फैलाने की किसी भी कोशिश, हेट स्पीच से लोहे के हाथों से निपटेंगे।

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हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने निशिकांत दुबे के खिलाफ अवमानना याचिका खारिज कर दी। शीर्ष कोर्ट ने 5 मई को निशिकांत दुबे के खिलाफ अवमानना याचिका पर सुनवाई की थी। कहा था कि हम ही थे, जिन्होंने वक्फ संशोधन कानून के खिलाफ याचिकाओं पर सुनवाई की थी।

भाजपा सांसद बोले थे- CJI देश में गृह युद्ध भड़काने के लिए जिम्मेदार हैं

निशिकांत दुबे ने 19 अप्रैल को कहा था- देश में गृह युद्ध के लिए CJI संजीव खन्ना और धार्मिक युद्ध भड़काने के लिए सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार है। दुबे सुप्रीम कोर्ट के राष्ट्रपति को विधेयकों पर फैसला लेने के लिए समय सीमा तय करने के फैसले पर बात कर रहे थे।

सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को आदेश दिया था कि किसी बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा।

निशिकांत के खिलाफ अवमानना याचिका दायर की गई थी

पूर्व IPS अमिताभ ठाकुर ने 20 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके दुबे के बयानों को आपराधिक अवमानना के दायरे में लाने की मांग की थी।

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के वकील नरेंद्र मिश्रा ने लेटर पिटीशन दायर कर स्वत: संज्ञान लेकर अवमानना कार्यवाही शुरू करने का आग्रह किया था।

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट के वकील अनस तनवीर और शिवकुमार त्रिपाठी ने अटॉर्नी जनरल को चिट्ठी लिखकर आपराधिक अवमानना कार्रवाई की शुरू करने की अनुमति मांगी थी।

भाजपा बोली- सांसद के बयानों का समर्थन नहीं करते

निशिकांत दुबे के बयान पर नड्डा ने X पोस्ट में लिखा था- भाजपा ऐसे बयानों से न तो कोई इत्तेफाक रखती है और न ही कभी भी ऐसे बयानों का समर्थन करती है। भाजपा इन बयान को सिरे से खारिज करती है। पार्टी ने सदैव ही न्यायपालिका का सम्मान किया है।

पार्टी ने कोर्ट के आदेशों और सुझावों को सहर्ष स्वीकार किया है, क्योंकि एक पार्टी के नाते हमारा मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय सहित देश की सभी अदालतें हमारे लोकतंत्र का अभिन्न अंग हैं। संविधान के संरक्षण का मजबूत आधारस्तंभ हैं। मैंने इन दोनों को और सभी को ऐसे बयान ना देने के लिए निर्देशित किया है।

विवाद पर अब तक क्या हुआ…

17 अप्रैल: धनखड़ बोले- अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ 17 अप्रैल को राज्यसभा इंटर्न के एक ग्रुप को संबोधित कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की उस सलाह पर आपत्ति जताई, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समय सीमा तय की थी।

धनखड़ ने कहा था- “अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट को मिला विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24×7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। जज सुपर पार्लियामेंट की तरह काम कर रहे हैं।” पूरी खबर पढ़ें…

18 अप्रैल: सिब्बल बोले- भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया

राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने कि जब कार्यपालिका काम नहीं करेगी तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही पड़ेगा। भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया है। राष्ट्रपति-राज्यपाल को सरकारों की सलाह पर काम करना होता है। मैं उपराष्ट्रपति की बात सुनकर हैरान हूं, दुखी भी हूं। उन्हें किसी पार्टी की तरफदारी करने वाली बात नहीं करनी चाहिए।’

सिब्बल ने 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहा- ‘लोगों को याद होगा जब इंदिरा गांधी के चुनाव को लेकर फैसला आया था, तब केवल एक जज, जस्टिस कृष्ण अय्यर ने फैसला सुनाया था। उस वक्त इंदिरा को सांसदी गंवानी पड़ी थी। तब धनखड़ जी को यह मंजूर था। लेकिन अब सरकार के खिलाफ दो जजों की बेंच के फैसले पर सवाल उठाए जा रहे हैं।’ पूरी खबर पढ़ें…

8 अप्रैल: विवाद सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से शुरू हुआ

सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के केस में गवर्नर के अधिकार की सीमा तय कर दी थी। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा था, ‘राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।’ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के 10 जरूरी बिलों को राज्यपाल की ओर से रोके जाने को अवैध भी बताया था।

इसी फैसले के दौरान अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल की तरफ से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सार्वजनिक किया गया। पूरी खबर पढ़ें…

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उपराष्ट्रपति बोले- अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं, जज ‘सुपर संसद’ की तरह काम कर रहे

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 17 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट की उस सलाह पर आपत्ति जताई, जिसमें उसने राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समय सीमा तय की थी। धनखड़ ने कहा था कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। पूरी खबर पढ़ें…

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