एमपी के माता मंदिर अनोखी परंपराओं और लोक मान्यताओं के लिए प्रसिद्ध हैं।
शारदीय नवरात्रि में मध्यप्रदेश के देवी धामों में भक्तों की भीड़ उमड़ रही है। आज दैनिक भास्कर के साथ कीजिए उन देवी मंदिरों के दर्शन, जो आस्था के केंद्र के साथ-साथ अनोखी परंपराओं और लोक मान्यताओं के लिए प्रसिद्ध हैं। इन मंदिरों की मान्यताएं और कथाएं उन
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भोपाल में कोलार क्षेत्र की पहाड़ी पर स्थित जीजीबाई माता को भक्त ‘चप्पल वाली माता’ के नाम से जानते हैं। यहां नई चप्पल, जूते या सैंडल चढ़ाने से देवी प्रसन्न होती हैं। इस परंपरा में विदेशों से आए श्रद्धालु भी शामिल होते हैं।
भोपाल के कर्फ्यू वाली माता मंदिर में भक्त नारियल पर अपनी मनोकामना लिखकर अर्पित करते हैं। 1982 में मूर्ति स्थापना के समय लगे लंबे कर्फ्यू के कारण यह मंदिर इस नाम से प्रसिद्ध हुआ। राजगढ़ जिले के बराई माता मंदिर की मान्यता है कि चेचक होने पर यहां से पत्थर ले जाने और पांच दिन बाद ठीक होकर भजिया-पूड़ी का भोग चढ़ाने से रोग हमेशा के लिए दूर होता है।
ब्यावरा की थाने वाली माता का चमत्कार पुलिस थाने की दीवार से प्रकट हुई मूर्ति से जुड़ा है। यहां पुलिसकर्मी ही पूजा-अर्चना करते हैं। शाजापुर के पचेटी गांव में पालना वाली माता की कृपा से निःसंतान दंपत्ति को संतान सुख मिलता है। मन्नत पूरी होने पर पालना बांधने की परंपरा यहां वर्षों से निभाई जा रही है।
उज्जैन का प्राचीन महामाया चौबीस खंभा मंदिर सदियों से महामारी और समृद्धि के लिए देवी को मदिरा अर्पित करने की परंपरा को संजोए है। वहीं, नीमच की भादवा माता के मंदिर में श्रद्धालु मानते हैं कि यहां के कुएं का जल लकवा और पोलियो जैसे रोगों से मुक्ति दिलाता है। ये सातों मंदिर केवल उपासना स्थल नहीं बल्कि विश्वास, संस्कृति और लोक आस्थाओं के अद्भुत संगम की मिसाल हैं।
आइए, एमपी के इन 7 मंदिरों के करते हैं दर्शन
जीजीबाई माता मंदिर, भोपाल

मान्यता है कि यहां देवी को चप्पल, जूते, सैंडल अर्पित करने से वे प्रसन्न होती हैं।
भोपाल के कोलार क्षेत्र की ऊंची पहाड़ी पर विराजमान माता कामेश्वरी शक्तिपीठ को लोग जीजीबाई माता मंदिर के नाम से जानते हैं। अनोखी परंपरा के कारण यह मंदिर ‘चप्पल वाली माता’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। मान्यता है कि यहां चप्पल, जूते, सैंडल और मनपसंद वस्तुएं अर्पित करने से देवी प्रसन्न होती हैं।
मंदिर तक पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को 121 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। 1999 में स्थापित यह शक्तिपीठ आज देश-विदेश तक ख्याति प्राप्त कर चुका है, जहां अमेरिका, इंग्लैंड, दुबई और सऊदी अरब तक से भक्त माता के लिए भेंट भेजते हैं।
कर्फ्यू वाली माता, भोपाल

भक्त यहां अपनी मनोकामना नारियल पर लिखकर चढ़ाते हैं।
भोपाल के सोमवारा चौराहा, पीरगेट के पास स्थित मां भवानी मंदिर ‘कर्फ्यू वाली माता’ के नाम से प्रसिद्ध है। इसका निर्माण सन 1980-81 में हुआ था। इससे पहले अश्विन मास की नवरात्रि में यहां मिट्टी की प्रतिमा स्थापित की जाती थी।
उस समय पूरे इलाके के लोग मिलकर अस्थायी प्रतिमा की स्थापना और पूजन करते थे। धीरे-धीरे भक्तों ने स्थायी मंदिर बनाने का निर्णय लिया, लेकिन स्थापना के दौरान बड़ा विवाद खड़ा हो गया।
तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के कार्यकाल में भक्तों और प्रशासन के बीच तनातनी बढ़ी और करीब 15-20 दिन तक पूरे इलाके में कर्फ्यू लगा रहा। इसी संघर्ष के बीच भक्तों ने माता भगवती की मूर्ति स्थापित की। यही वजह है कि यह मंदिर ‘कर्फ्यू वाली माता’ के नाम से जाना जाता है।
बराई माता मंदिर, राजगढ़

बराई माता मंदिर में चमत्कारी पत्थरों से चेचक का इलाज होता है।
राजगढ़ में खिलचीपुर के घने जंगलों में स्थित बराई माता मंदिर, आस्था का अनोखा केंद्र है। यह मंदिर किसी साधारण जगह पर नहीं, बल्कि लगभग 400 साल पुरानी रियासतकालीन बावड़ी के अंदर बना हुआ है। यहां माता की प्रतिमा के साथ-साथ बावड़ी में जमे प्राचीन पत्थरों को भी चमत्कारी माना जाता है। मान्यता है कि इन पत्थरों से टूटकर गिरने वाले कंकर, चेचक जैसे असाध्य रोग से मुक्ति दिलाते हैं।
मंदिर में माता की प्रतिमा बावड़ी के बीच से निकली हुई है और नवरात्रि में विशेष पूजा-पाठ और श्रृंगार किया जाता है। यहां के पत्थरों की अनोखी परंपरा है। माना जाता है कि चेचक होने पर बावड़ी से टूटे हुए पांच कंकर उठाकर माता के सामने चढ़ाने और फिर उन्हें घर ले जाकर पानी में घिसकर चेहरे पर लगाने से रोग ठीक हो जाता है। राजस्थान तक से श्रद्धालु यहां आते हैं।
थाने वाली माता, ब्यावरा

400 साल पुराने मंदिर की देखरेख पुलिस विभाग करता है। पुजारी भी रिटायर्ड हेड कॉन्स्टेबल हैं।
राजगढ़ जिले के सुठालिया कस्बे से 5 किलोमीटर दूर मऊ गांव की पहाड़ी पर ऐसा मंदिर है, जहां आस्था और पुलिस की वर्दी एक साथ नजर आती है। यह मंदिर मां चामुंडेश्वरी का है, जिसे स्थानीय लोग ‘थाने वाली माता’ के नाम से जानते हैं। करीब 400 साल पुराने मंदिर की देखरेख 77 साल से पुलिस विभाग कर रहा है।
साल 1946 में यहां ब्रिटिश शासन के दौरान थाना स्थापित हुआ, तभी से मंदिर का प्रबंधन पुलिस के हाथों में आ गया। एक घटना ने इस आस्था को और भी गहरा कर दिया। बताते हैं कि साल 1988 में जब थाने को मऊ से सुठालिया शिफ्ट किया जा रहा था, तब अचानक थाने के भवन में दरारें आ गईं। एक कमरे में आग भी लग गई।
पुलिस अधिकारियों ने इसे मां का संकेत मानकर उनकी आराधना की। इसके बाद थाने का नाम बदलकर ‘पुलिस थाना मऊ सुठालिया’ रखा गया, जो आज भी पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज है। तब से यह परंपरा बन गई कि कोई भी नया अधिकारी या पुलिसकर्मी थाने में जॉइन करने से पहले मां के दरबार में हाजिरी लगाता है। यह प्रक्रिया रिकॉर्ड में भी दर्ज की जाती है।
बाड़ी माता, शाजापुर

विवाहिता की गोद भरने पर ग्रामीण मंदिर में पालना चढ़ाते हैं।
आगर जिले से करीब 24 किमी दूर पचेटी गांव स्थित बाड़ी माता का मंदिर करीब 500 साल पुराना है। यह मंदिर मुख्य मार्ग से करीब 12 किलोमीटर दूर पहाड़ी पर है। आसपास 12 से ज्यादा गांव लगे हैं। यहां माता की स्वयंभू प्रतिमा है।
श्रद्धालु यहां संतान की कामना लेकर आते हैं। मन्नत पूरी होने पर मंदिर में पालना चढ़ाते हैं। मंदिर के पुजारी मोड़सिंह ने बताया कि मंदिर में घंटियों के साथ जगह-जगह झूले टंगे हैं।
मान्यता है कि यहां मन्नत मानने पर विवाहिता की कोख सूनी नहीं रहती। फिर चाहे बेटा हो या बेटी। मन्नत पूरी होने पर परिजन सबसे पहले मंदिर आकर पालना बांधते हैं। वर्षों से चली आ रही परंपरा आज भी निभाई जा रही है। हालांकि अगले महीने दिवाली के चलते मंदिर से सभी झूले हटा दिए गए हैं। मंदिर में 50 साल से लगातार अखंड ज्योति जल रही है।
चौबीस खंभा मंदिर, उज्जैन

उज्जैन के इस मंदिर में अष्टमी पर नगर पूजा होती है। कलेक्टर मदिरा का भोग लगाते हैं।
9वीं-10वीं शताब्दी में बना उज्जैन का चौबीस खंभा मंदिर कई मायनों में सबसे अलग है। यहां महामाया और महालया माता विराजमान हैं, जो नगर और भक्तों को अनिष्ट से बचाती हैं। यह मंदिर 1400 वर्ष से अधिक पुराना है। यहां दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं।
माना जाता है कि उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मूल मंदिर का निर्माण कराया था। बाद में परमार राजाओं ने इसका जीर्णोद्धार कराया। इस मंदिर में 24 नक्काशीदार खंभे हैं, मंदिर की वास्तुकला गुप्त स्थापत्य शैली का एक उदाहरण है। खंभों पर पौराणिक दृश्य, देवता और पुष्प आकृतियां उकेरी गई हैं।
यहां की एक परंपरा मदिरा से जुड़ी है। नवरात्र की अष्टमी के दिन कलेक्टर माता को मदिरा का भोग लगाते हैं और 40 मंदिरों (27 किमी) तक मदिरा की धार बहाई जाती है। बाल बाकल का भोग लगाया जाता है। यह काम पटवारी, वसूली पटेल और चौकीदार करते हैं। ये परंपरा राजा विक्रमादित्य के समय से जुड़ी है। ऐसा महामारी-आपदा से बचाव और समृद्धि के लिए किया जाता है।
मालवा की वैष्णो देवी, नीमच

मालवा के इस वैष्णो देवी मंदिर पर फिल्म भी बन चुकी है।
नीमच जिला मुख्यालय से करीब 24 किलोमीटर दूर स्थित है मालवा की वैष्णो देवी और आरोग्य देवी कही जाने वाली भादवा माता का मंदिर। इस मंदिर को आरोग्य तीर्थ भी कहते हैं। मान्यता है कि यहां मौजूद प्राचीन बावड़ी के जल से लकवा, मिर्गी जैसे असाध्य रोग भी ठीक हो जाते हैं।
भदवा गांव में मंदिर होने के कारण इनका नाम भादवा माता पड़ा। यहां शुरुआत से मुख्य पुजारी भील समुदाय का ही रहा है। हालांकि, गांव में ब्राह्मण और भील दोनों समुदाय के लोग रहते हैं।
मंदिर में स्थित प्राचीन बावड़ी में सालभर पानी रहता है। यहां आने वाले भक्त इस बावड़ी में स्नान और आचमन करते हैं। इस पानी को बोतल में भरकर घर भी ले जाते हैं। इसके अलावा रोग ग्रस्त अंग पर भस्म का लेप करते हैं। मन्नत मांगकर यहां श्रद्धालु कलावा भी बांधते हैं।
उज्जैन के चौबीस खंभा मंदिर में देवी महामाया और महालया
भोपाल की पहाड़ी पर चप्पल वाली माता
भक्त अपनी मनोकामना नारियल पर लिखकर चढ़ाते हैं
राजगढ़ के बराई माता मंदिर में चमत्कारी पत्थर से चेचक का इलाज
ब्यावरा में आस्था और वर्दी का संगम, थाने वाली माता
शाजापुर में गोद भरने पर माता मंदिर में चढ़ाते हैं पालना
नीमच का वैष्णो देवी मंदिर बना आरोग्य तीर्थ
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एमपी में जबलपुर के चौसठ योगिनी मंदिर में भगवान शिव और पार्वती के विवाह की प्रतिमा अद्वितीय है, जिसे देखने के लिए मां नर्मदा ने भी अपनी धारा मोड़ दी थी। मैहर का मां शारदा मंदिर 52 शक्तिपीठों में शामिल है, जहां आल्हा-ऊदल के अब भी आरती में आने की मान्यता भक्तों को रोमांचित करती है। पढ़ें पूरी खबर..