Why Argentina Went from America’s Rival to 9 Defaults: Football, Politics & Corruption Explained | फुटबॉल, पॉलिटिक्स और करप्शन का कॉकटेल है अर्जेंटीना: 100 साल पहले अमेरिका को टक्कर दे रहा था, अगले 100 साल में क्यों 7 बार दिवालिया हुआ

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ब्यूनस आयर्स5 मिनट पहले

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दुनिया में सिर्फ चार तरह की इकोनॉमी होती हैं, डेवलप, अंडर डेवलप, जापान और अर्जेंटीना।

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70 के दशक में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री साइमन कुजनेट्स ने यह बात मजाक में कही थी, लेकिन अर्जेंटीना के हालात बयान करने के लिए यह एक मशहूर वन लाइनर बन गया।

जापान 2 परमाणु हमला झेलकर भी दुनिया का टॉप अमीर देश बन गया, जबकि 100 साल पहले अमेरिका के साथ सुपरपावर बनने की रेस में रहा अर्जेंटीना पिछड़ता चला गया।

अर्जेंटीना ने 20वीं सदी में ऐसा पतन झेला, जिसकी इतिहास में दूसरी मिसाल मिलना काफी मुश्किल है। पिछले 100 साल में यह देश 9 बार दिवालिया हो चुका है। यहां 6 तख्तापलट हो चुके हैं।

अर्जेंटीना नेचुरल रिसोर्सेज से मालामाल होने के साथ दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण भौगोलिक लोकेशन पर मौजूद है। इसके बाद भी अस्थिर आर्थिक नीतियों से इसे मुश्किलों में फंसाए रखा है। पॉलिटिक्स, करप्शन और फुटबॉल का इसमें क्या योगदान है, आगे स्टोरी में जानेंगे…

यूरोप को अनाज बेच दुनिया का अन्न भंडार बना

अर्जेंटीना के विशाल उपजाऊ मैदान को पम्पास कहा जाता है। यह पूरी दुनिया में सबसे उपजाऊ मैदानों में से एक है। प्रथम विश्वयुद्ध में जब यूरोपीय देश जंग में उलझे थे तो वहां खेती का कारोबार ठप हो गया। यूरोप के हालत का फायदा अर्जेंटीना ने उठाया।

अर्जेंटीना से गेहूं, मांस, ऊन बड़े पैमाने पर यूरोप भेजे जाने लगे। अर्जेंटीना को ‘दुनिया का ग्रेनरी’ यानी ‘अन्न भंडार’ कहा जाने लगा। अर्जेंटीना में जब पैसे आए तो वहां यूरोप की कंपनियां पहुंचीं। उन्होंने रेल लाइनें, सड़कें और बंदरगाह बनाने में काफी निवेश किया।

ब्यूनस आयर्स, रोसारियो और कोरडोबा जैसे शहर यूरोपीय शहरों को टक्कर देने लगे। इस दौरान यूरोप से लाखों प्रवासी अर्जेंटीना आए। अर्जेंटीना की तरक्की देख कई एक्सपर्ट्स दावे करने लगे कि यह देश अमेरिका के साथ अगला सुपरपावर बनेगा।

यूरोपीय देशों की बराबरी की, मंदी से तबाह हुआ

एंगस मैडिसन जैसे इतिहासकारों की रिसर्च के मुताबिक 1925 में अर्जेंटीना की GDP कनाडा, ब्रिटेन, स्पेन, इटली जैसे यूरोपीय देशों के बराबर हो चुकी थी। अर्जेंटीना दुनिया के सबसे अमीर देशों में शामिल हो चुका था। लेकिन कुछ ही समय में स्थिति बदलने वाली थी।

साल 1929 में अमेरिका में ‘द ग्रेट डिप्रेशन’ आया। इस महामंदी ने दुनिया की इकोनॉमी हिला दी। यूरोप और अमेरिका के पास पैसा कम हुआ तो डिमांड घटी। अर्जेंटीना को कम ऑर्डर मिलने लगे। वैश्विक व्यापार ठप पड़ने से अर्जेंटीना का कृषि निर्यात अचानक गिर गया।

किसानों की आमदनी घटी, बेरोजगारी बढ़ी। अच्छी जिंदगी जीने की आदत डाल चुके लोगों में सरकार के लिए गुस्सा भर गया। आर्मी चीफ जनरल जोस फेलिक्स उरिबुरु ने इसका फायदा उठाया। उन्होंने राष्ट्रपति हिपोलिटो यरीगोयेन को गिरफ्तार कर लिया और राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया। इस तख्तापलट में एक बूंद खून नहीं बहा।

हालांकि जनरल उरिबुरु भी अर्जेंटीना की हालत सुधार नहीं पाए। 1931 में जनरल ने चुनाव का ऐलान कर दिया। 1932 में अर्जेंटीना में नई सरकार बनी। हालांकि तख्तापलट का सिलसिला जो शुरू हुआ था आगे भी जारी रहा।

1930 से लेकर 1980 के बीच अर्जेंटीना में 6 बार सैन्य तख्तापलट हुए और सरकारें बदलती रहीं। इस अस्थिरता ने निवेशकों का भरोसा तोड़ा, उद्योग और कृषि को नुकसान पहुंचाया और विकास की रफ्तार रोक दी।

अर्जेंटीना ने खुद को दुनिया से अलग-थलग किया

साल 1943 में सैन्य तख्तापलट के बाद अर्जेंटीना में सेना के कब्जे वाली सरकार बनी। सैन्य सरकार ने 1944 में राष्ट्रपति पद पर एडेल्मिरो फर्रेल को बैठाया। लेकिन असल ताकत जुआन पेरोन के हाथ में चली गई। पेरोन ने अर्जेंटीना को मंदी से उबारने के लिए देश को दुनिया से अलग कर दिया।

पेरोन ने विदेशी व्यापार पर पाबंदियां और ऊंचे आयात शुल्क लगाए ताकि घरेलू उद्योगों को बढ़ावा मिल सके। इसका शुरुआती फायदा मिला। अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था में तेजी आई और लोगों का जीवनस्तर सुधरा। लेकिन कुछ ही सालों में आयात घटने और विदेशी पूंजी निकलने से महंगाई और वित्तीय संकट बढ़ने लगा।

वित्तीय संकट बढ़ने से देश में पेरोन के खिलाफ माहौल बन गया। उन्होंने इससे निपटने के लिए प्रेस पर पाबंदी लगा दी। इतना ही नहीं, पेरोन ने चर्च से भी दुश्मनी मोल ले ली। पेरोन ने चर्च की ताकत कम करने के लिए कुछ कानून बनाए और चर्च ने भी खुलकर पेरोन की आलोचना शुरू कर दी। कैथोलिक अर्जेंटीना में यह बड़ा मुद्दा बन गया।

राष्ट्रपति पेरोन अपनी पत्नी ईवा के साथ गवर्नमेंट हाउस की बालकनी से जनता का अभिवादन करते हुए। तस्वीर 1950 की है।

राष्ट्रपति पेरोन अपनी पत्नी ईवा के साथ गवर्नमेंट हाउस की बालकनी से जनता का अभिवादन करते हुए। तस्वीर 1950 की है।

सरकार ने खर्च चलाने के लिए अंधाधुन नोट छापे

सेना शुरू में पेरोन के साथ थी, लेकिन जैसे-जैसे देश में असंतोष फैला, सेना ने उनसे दूरी बना ली। साल 1955 में सेना के एक पूर्व सैनिक ने तख्तापलट कर दिया। पेरोन के जाने के बाद अर्जेंटीना की राजनीति में अस्थिरता का दौर शुरू हुआ, जिसमें अगली दो दशकों तक कई बार तख्तापलट और लोकतंत्र की कोशिशें होती रहीं।

1970 के दशक में सरकारों ने सामाजिक कार्यक्रम, मजदूरी बढ़ाने और कर्ज चुकाने के लिए खर्च बढ़ा दिया, लेकिन कमाई नहीं बढ़ी। खर्च चलाने के लिए सरकारों ने सेंट्रल बैंक से बेहिसाब नोट छपवाने शुरू किए।

लगातार नोट छापने का नतीजा 1989 में हाइपरइन्फ्लेशन के रूप में सामने आया, जब महंगाई 3000% से ज्यादा हो गई। दुकानों पर कीमतें रोज बदलने लगीं और लोग नोटों से भरी थैलियां लेकर रोटी खरीदने जाते थे। अर्जेंटीना की करेंसी पेसो का भरोसा पूरी तरह खत्म हो गया।

साल 1991 में अर्जेंटीना के राष्ट्रपति कार्लोस मेनेम ने पेसो को अमेरिकी डॉलर से जोड़ने का फैसला किया। सरकार ने तय किया कि 1 पेसो = 1 अमेरिकी डॉलर होगा। पेसो की वैल्यू डॉलर के बराबर रखने से अर्जेंटीना की करेंसी बहुत मजबूत हो गई। मजबूत करेंसी से अर्जेंटीना के सामान दुनिया में महंगे हो गए और एक्सपोर्ट घटने लगा।

विदेश से सामान मंगवाना सस्ता हो गया, जिससे अर्जेंटीना के लोग बड़ी संख्या में विदेशी सामान खरीदने लगे। इससे लोकल फैक्ट्रियां और उद्योग कमजोर पड़ने लगे और बेरोजगारी बढ़ी।

जब देश के डॉलर खत्म होने लगे और अर्थव्यवस्था चरमरा गई, तो सरकार इसे संभाल नहीं पाई। 2001 में पेसो की कीमत तेजी से गिर गई। बैंकों में लूटपाट जैसे हालत हो गए और देश कर्ज चुकाने में फेल होकर दिवालिया हो गया।

फुटबॉल का अर्जेंटीना की बर्बादी में बड़ा योगदान

जुआन पेरोन से लेकर बाद के नेताओं तक, अर्जेंटीना के नेताओं ने फुटबॉल को राष्ट्रीय गौरव और जनता का ध्यान भटकाने के साधन के तौर पर इस्तेमाल किया। जैसे कि 1978 के वर्ल्ड कप से पहले देश तानाशाही, ह्यूमन राइट्स के हनन और आर्थिक संकट में था, लेकिन सरकार ने वर्ल्ड कप को प्रोपगेंडा की तरह इस्तेमाल किया।

अर्जेंटीना ने फाइनल जीता और लोग खुशी में डूब गए, जबकि देश में सेना के अत्याचार जारी रहे। 1978 के वर्ल्ड कप के लिए अर्जेंटीना ने स्टेडियम और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर आज के हिसाब से करीब 700 मिलियन डॉलर (6000 करोड़ रुपए) खर्च कर दिए, जबकि देश पहले से कर्ज और महंगाई में डूबा था।

सरकारें जनता को खुश करने के लिए फुटबॉल में भारी निवेश करती रहीं, लेकिन जरूरी सुधार या उद्योगों में निवेश नहीं किया। नतीजा ये हुआ कि फुटबॉल ने अर्जेंटीना के नेताओं को राजनीतिक लोकप्रियता दिलाई, लेकिन देश आर्थिक रूप से पीछे चला गया।

अर्जेंटीना फुटबॉल टीम के कप्तान डेनियल पार्सेला 1978 में फुटबॉल विश्व कप जीतने के बाद ट्रॉफी के साथ।

अर्जेंटीना फुटबॉल टीम के कप्तान डेनियल पार्सेला 1978 में फुटबॉल विश्व कप जीतने के बाद ट्रॉफी के साथ।

जनता भी खेल के रोमांच में खो जाती थी, और असली समस्याओं जैसे भ्रष्टाचार, बेरोजगारी से ध्यान हट जाता था। अर्जेंटीना का फुटबॉल क्रेज नेताओं के लिए एक ताकतवर ‘डिस्ट्रैक्शन’ बन गया। सरकारें खेल के नाम पर जनता को खुश रखने के लिए बेफिजूल खर्च करती रहीं, और जरूरी आर्थिक फैसलों को टालती रहीं, जिससे अर्जेंटीना लंबे समय तक आर्थिक संकट से बाहर नहीं निकल पाया।

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